Tuesday, October 21, 2008

कथा-कुंभ में हंस-राज की चौपड़




फतेहपुर सीकरी के राजमहल में गाइड बड़े उत्साह से एक जगह का ब्योरा देते हैं, जहां एक विशालकाय चौपड़ का चार खाने
वाला ढांचा है. उससे कुछ ऊपर राजा-महाराजाओं के बैठने की जगह बनी है, जहां से राजा चौपड़ खेलते हुए चाल का पांसा फेंकते थे. हरी, पीली, लाल, नीली गोटियों की जगह हरे, पीले, लाल, नीले रंग के आभूषणों से सजी कन्याएं खड़ी रहती थीं और पांसे को फेंक कर अगर चार नंबर आया तो उस रंग की गोटी के स्थान पर उस रंग के वस्त्रो से सजी सुसज्जित कन्या के पैरों में झांझर पहने झंकारती इठलाती हुई नृत्य के अंदाज में चार घर चलती थीं. जाहिर है जिन नर्तकियों या कन्याओं को गोटियों का स्थानापन्न बनाने के लिए बुलाया जाता, वे राजा के मह में प्रवेश पाने को अपना अहोभाग्य समझतीं. हंस के पन्नों पर जब भी देहवादी सामग्री परोसी जाती है, मुझे राजा इंद्र का दरबार सजा दिखाई देता है, जहां अप्सराओं को रिझाने-लुभाने और उनके करतब देखने के लिए राजा इंद्र बाकायदा हंस की शतरंजी चौपड़ का पांसा फेंक रहे हैं. आज बाजार ने तो स्त्री को देह तक रिड्यूस कर ही दिया है. स्त्री की अहमियत क्या है? महज एक देह. इस देह का करतब हम छोटे-बड़े परदे पर हर वक्त देख रहे हैं. स्त्री की देह, सबसे बड़ी बिकाऊ कमोडिटी बनकर हमारे घर में घुस आई है, और हम उसे रोक नहीं पा रहे. लड़कियां यह कहने में शर्मिंदगी महसूस नहीं करतीं कि आपके पास बुद्धि है, आप पढ़ाकर पैसा कमा रहे हैं, हमारे पा देह है, हम उससे पैसा कमा रही हैं और हमें फर्क नहीं पड़ता तो आप क्यों परेशान हैं? हम या आप ऐसी औरतों की देह की आजादी में कहां आड़े आ रहे हैं? देह उनकी, वे जैसे चाहें इस्तेमाल करें. पर छोटे-बड़े परदे पर अर्द्धनग्न औरतों की जमात को सामूहिक रूप से भोंड़े प्रदर्शन करते देखना मानसिक चेतना पर लगातार प्रहार करता है. मीडिया और फिल्मों और विज्ञापनों में जिस तरह औरत की देह को परोसा जा रहा, जनचेतना के प्रगतिशील कथा मासिक को उस दिखाऊ, उघाड़ू प्रवृत्ति के विरोध में खड़ा होना चाहिए. आप जैसे विचारवान संपादक का एक और स्त्री विमर्श तो मीडिया और बाजार के समर्थन में खड़ा, उसकी पीठ ही नहीं थपथपाता, जीभ लपलपाता दिखाई दे रहा है.
....स्त्री-विमर्श को लेकर न पश्चिम में कहीं कोई धुंध है, न भारत में. भारत में इस धुंध के प्रणेता आप बन रहे हैं और इस मुगालते में जी रहे हैं कि सदियों से दबी कुचली स्त्री देह को आजाद करेंगे तो एकमात्र आप ही. जो काम फिल्मों में महेश भट्ट, मीडिया में स्त्री के साथ बाजार कर रहा और जिसे स्त्रियों की एक खास जमात स्वयं सहमति देकर अपने-आप को परोस रही है, वही काम साहित्य में एक जिम्मेदार कथा मासिक का संपादक करहा है- लोलुपता और लंपटता को बौद्धिक शब्दजाल में लपेटकर सामाज
िक मान्यता प्रदान करना.
स्त्री देह को लेकर गालियां, अश्लीलता, छिछोरापन कब, किस समाज में, किस युग में नहीं रहा? साहित्य में वह गुलशन नंदा की सीधी सपाट शब्दावली के दायरे से निकलकर आपके बौद्धिक आतंक का जामा पहनी हुई भाषा में आ गया है. दिक्कत यह है कि रचनात्मक साहित्यकार समाजविज्ञान से संबंधित विषयों पर शोध किये बिना और सामाजिक मनोविज्ञान की बारीकियों को समझे बगैर सामाजिक स्थापनाओं के रूप में अपनी मौलिक उद्भावनाएं दे रहा है. निजी व्याधि को साहित्यिक रूप से प्रतिष्ठित कर आप उसे समुदाय की व्याधि बनाना चाह रहे हैं.
पश्चिम में पूंजी के आ
धिक्य से और भारत में पूंजी के अभाव में आजादी और आधुनिकता आई है. निम्न मध्यवर्गीय लड़कियों की मांगें और महत्वकांक्षाएं पूरी नहीं होतीं तो वह देह के बाजार से अपने लिए सुविधाएं जुटा लेती हैं. शिकागो या न्यूयार्क में चालीस डिग्री के ऊपर गर्मी पड़ती है तो लड़कियां ब्रा और शॉट्स में मॉल में घूमती दिखाई देती हैं. समुद्र या झील के किनारे उनका टॉपलेस में भी नजर आना हैरानी का बायस नहीं बनता. वहां के बाशिंदों को इसकी आदत हो चुकी है और वहां कोई ठिठक कर उघड़ी हुई स्त्री देह को देखता तक नहीं, वहां की नैतिकता कपड़ों के आवरण से बाहर निकल आई है. भारत के बाशिंदे अब भी नेक लाइन पर आंखें गड़ा देते हैं और जींस से बाहर झांकती पैंटी के ब्रांड का लेबल पढ़ना नहीं भूलते. नैतिकता का हथियार वहीं वार करता है, जहां आज भी स्त्री देह को सौंदर्य का प्रतीक और सम्मान की चीज माना जाता है, उसका भोंडा प्रदर्शन हमें विचलित ही करता है.
स्त्री को अदर दैन बॉडी डिस्कवर करने का स्टैमिना ही नहीं रह गया है- न फिल्म निर्माताओं-निर्देशकों में, न आप जैसे संपादकों में. अफसोस स्नोवावार्नो की कहानी मेरा अज्ञात मुझे पुकारता है को छापने के बाद भी आप स्त्री देह के सौंदर्य को उसकी संपूर्णता में न देखकर, निचले हिस्से का सच जैसी स्थूल शब्दावली में ही देखना चाहते हैं, यह दृष्टिदोष लाइलाज
है.
महिला रचनाकारों की इतनी बड़ी जमात लिख रही है अपनी समस्याओं पर, उन्हें अपनी समस्याओं के बारे में खुद बात करने दीजिए. महिलाओं की बेशुमार अंतहीन सामाजिक समस्याएं. बेहद प्रतिकूल सामाजिक स्थितियों में, दहेज प्रताड़ना, भ्रूण हत्या और गर्भपात को झेलती, खेती-मजदूरी में पसीना बहाती, घर-परिवार की आड़ी तिरछी जिम्मेदारियों को संभालने और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बावजूद पति की लंपटता, उपेक्षा या हिंसा को झेलतीं
औरत (आपसे बेहतर कौन इस स्थिति को समझ सकता है) का एक बहुत बड़ा वर्ग है, जहां देह की आजादी या देहमुक्ति कोई मायने नहीं रखती. आज की औरत को घर के अलावा बाहरी स्पेस से जूझना पड़ रहा है तो सोलहवीं सदी का ओथेलो भी पुरुष के भीतर फन फैलाये जिंदा है. बलात्कार और भ्रूण हत्याएं पहले से कई गुना बढ़ गई हैं. ताजा रिपोर्ट के अनुसार पंजाब में लिंग अनुपात एक हजार लड़कों के पीछे तीन सौ लड़कियों का रह गया है.
स्त्री मुक्ति का पहला
चरण देह-मुक्ति से ही शुरू होगा, का झंडा लिये आप अरसे घूम रहे हैं. ऐसा नहीं कि आप इसमें कामयाब नहीं हैं, आजाद देह वाली स्त्रियों की तादाद में खासी बढ़ोत्तरी हुई है. हर शहर में वे पनप रही हैं. पहले सिर्फ मीडिया और कॉरपोरेट जगत में ये स्त्रियां अपनी देह के बूते पर फिल्मों और मॉडलिंग में जगह पाती थीं या कार्यालयों में प्रमोशन पर प्रमोशन पा जाती थीं. हंस के स्त्री देहमुक्ति अभियान से आंदोलित हो वे साहित्य के क्षेत्र में भी देह का तांडव अपनी रचनाओं में दिखा रही हैं और देह को सीढ़ी बनाकर राजेंद्र यादव जैसे भ्रमित संपादकों का भावनात्मक दोहन कर अपनी लोकप्रियता के गुब्बारे आसमान में छोड़ रही हैं. अपने इस अश्वमेध यज्ञ में आप सहभागी बना रहे हैं रमणिका गुप्ता और कृष्णा अग्निहोत्री को, जिनकी आत्मकथाओं को साहित्य में किन कारणों स तवज्जोह दी गई, यह किसी शोध का विषय नहीं है.
हंस के जुलाई अंक में ही फरीदाबाद के डाक्टर रामवीर ने सटीक टिप्पणी की है, कृपया प्रेमचंद की पत्रिका हंस के साथ जनचेतना के प्रगतिशील कथा मासिक की बाइलाइन हटाकर स्त्री देह की आजादी का मुखपत्र रख दें, पचास साल बाद राजेंद्र यादव के साहित्यिक अवदान को कितना याद रखा जाएगा, इसकी गारंटी कोई नहीं दे सकता, पर स्त्री मुक्ति का पहला चरण देहमुक्ति से शुरू होगा, की उद्घोषणा के प्रथम प्रणेता के रूप में हंस संपादक का नाम अवश्य स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज किया जाएगा. मैं चाहती हूं कि इस बहाने एक बुनियादी जिरह शूरू हो, जिसमें स्त्री को केवल बुर्जुआ समाजसास्त्र और बाजार के देह
शास्त्र के बीच रखकर ही नहीं देखा जाए बल्कि उसकी मुक्ति के प्रश्नों को अधिक समग्रता में खोजा जा सके, क्योंकि ये प्रश्न अंततः हमें उस दिशा की ओर ले जाते हैं कि कौन-सा और कैसा समाज गढ़ना चाहते हैं, आज बाजार की सबसे बड़ी शिकार औरत ही हो रही है और वही सबसे ज्यादा दलित है और अपमानित भी, क्या हम बाजार के यूटोपिया से ही संचालित रहेंगे या इसे लांघ कर आगे भी जाएंगे?
(स्त्री-विमर्श में कविता वाचक्नवी)




अपने पापा पर एक टिप्पणी रचना यादव की कलम से
हंस के संपादक
और सुप्रसिद्ध कथाकार राजेंद्र यादव की बेटी रचना मानती हैं कि राजेंद्र यादव को पापा बनना तो कभी आया ही नहीं, फिर अच्छा पापा बनना तो दूर की बात है. रचना के अनुसार उनके लिए तो माँ और पिता, इन दोनों की भूमिकाएँ मम्मी यानी मन्नू भंडारी ने ही अदा की. पापा लेखक बनने में ही इतने व्यस्त रह गए कि पिता बनने तक की तो नौबत ही नहीं आई.

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