Saturday, October 25, 2008

अखबार वाला/ रघुवीर सहाय




धधकती धूप में रामू खड़ा है
खड़ा भुलभुल में बदलता पाँव रह रह
बेचता अख़बार जिसमें बड़े सौदे हो रहे हैं ।
एक प्रति पर पाँच पैसे कमीशन है,
और कम पर भी उसे वह बेच सकता है
अगर हम तरस खायें, पाँच रूपये दें
अगर ख़ैरात वह ले ले ।
लगी पूँजी हमारी है छपाई-कल हमारी है
ख़बर हमको पता है, हमारा आतंक है,
हमने बनायी है
यहाँ चलती सड़क पर इस ख़बर को हम ख़रीदें क्यो ?
कमाई पाँच दस अख़बार भर की क्यों न जाने दें ?
वहाँ जब छाँह में रामू दुआएँ दे रहा होगा
ख़बर वातानुकूलित कक्ष में तय कर रही होगी
करेगी कौन रामू के तले की भूमि पर कब्ज़ा ।

No comments: