Thursday, December 11, 2008

लोकतंत्र का उत्सव

साठ साल से चरका-पट्टी
पढ़ा रहे उल्लू के पट्ठे.
हंस हुए निर्वंश, मलाई
उड़ा रहे उल्लू के पट्ठे.

चलो टिकट का खेल, खेल लें
फिर मतदाताओं को झेल लें
लोकतंत्र का उत्सव कहकर
चढ़ा रहे उल्लू के पट्ठे.

वे अपना घर भरे जा रहे
हम महंगी से मरे जा रहे
धुंआ-धुंआ हम हुए, चिलम
गुड़गुड़ा रहे उल्लू के पट्ठे.

अबकी जब चुनाव में आवैं
इतना मारो, बच ना पावैं
पांच साल से दिल्ली में
बड़बड़ा रहे उल्लू के पट्ठे.

1 comment:

ghughutibasuti said...

उल्लू तो बड़ा भला सा प्राणी होता है क्यों उनका रिश्ता गलत लोगों से जोड़ रहे हैं ?
घुघूती बासूती