Friday, March 20, 2009

दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी लादेन नहीं, अमेरिका-3

-यह पोस्ट उन शुतुर्मुर्गों के लिए नहीं, जो अपनी दुनिया में मस्त हैं.
-यह पोस्ट उन निठल्लों के लिए भी नहीं, जो लिखने-पढ़ने के नाम पर कचरा उगलते रहते हैं.
-यह पोस्ट उनके लिए है, जो अमेरिकियों और आतंकियों के हाथों मारे गए लाखों लोगों की दास्तान से गमजदा हो जाते हैं. जिन्हें मनुष्यता और उसकी सच्चाई में विश्वास है, जो सिर्फ अपने लिए नहीं जीते. जो आदमियों की भीड़ में कुलबुलाते कीड़े-मकोड़े नहीं.
-जो मनुष्यता और उसके संघर्षों के साथी हैं. जो मनुष्यता को घेर कर मारने वालों पर थूकते हैं, जो मनुष्यता के लिए मर-मिटने का जज्बा रखते हैं. जो भरे पेट डकारते और टहलते रहते नहीं हैं.

.....तो बात चल रही है कि दुनिया का बड़ा आतंकवादी कौन है अमेरिका या ओसामा बिन लादेन और उसके लोग? निष्कर्ष है कि अमेरिका सबसे बड़ा आतंकवादी देश है. कैसे? आतंकवाद के इस पूरे मामले पर न्यूयार्क टाइम्स की भूमिका कैसी है? आइए आगे जानते हैं सच्चाइयां. तथ्यों सहित पड़ताल की तीसरी कड़ी.

जैसा कि यूरोपीय सोचते हैं, मीडिया कवरेज हर जगह एक जैसी नहीं है. क्योंकि वे सिर्फ न्यूयॉर्क टाइम्स, नेशनल पब्लिक रेडियो और टीवी तक ही सीमित रह जाते हैं. जबकि न्यूयॉर्क टाइम्स मानता है कि न्यूयॉर्क का माहौल वैसा नहीं है, जैसाकि वे अब तक बताते रहे हैं. यह अच्छी रिपोर्ट है, जो इशारा करती है कि मुख्य धारा का मीडिया ऐसी खबरों को नहीं छाप रहा है. 11 सितंबर के आतंकी हमले के बाद टाइम्स लिखता है कि न्यूयॉर्क की सड़कों पर जंग के नक्कारे की आवाज मुश्किल से सुनाई देती है. और हताहतों के लिए बने स्मारक पर भी शांतिपक्षीय स्वर पलटवार की मांगों को दबा रहे हैं. और यह देश के सभी लोगों की भावनाओं से कुछ खास अलग नहीं है. सबकी मांग वही है, आततायियों को पकड़ा जाए और दंडित किया जाए. बहुमत हिंसा के बदले अंधी हिंसा और सैकड़ों मासूमों की हत्या के खिलाफ है, जैसा कि बुश ने इराक और अफगानिस्तान में बम बरसाकर किया है. 11 सितंबर की तरह ही मीडिया की भूमिका सर्बिया के ऊपर बमबारी के समय भी जुनून की हद तक रही. खाड़ी युद्ध भी कहीं से असामान्य नहीं था.
बिन लादेन और उसके समर्थक बेईमान, दमनकारी और गैर-इस्लामी सत्ता और उनको सहयोग देने वालों के खिलाफ एक जेहादी जंग लड़ रहे हैं. इसी तरह की जंग 1980 के दशक में रूस के खिलाफ लड़ी गई थी. और अब चेचन्या, पश्चिमी चीन, 1981 में सादात की हत्या के बाद मिस्र में लड़ी जा रही है.
अब इराक के मामले को लें. हालांकि पश्चिम के लोगों का कहना कुछ और है, लेकिन मध्य-पूर्व के लोग यह मानते हैं कि पिछले दस-बारह बरसों में अमरीकी नीतियों ने इराकियों की जिंदगी तबाह कर दी है. उससे जालिम सद्दाम हुसैन को शहादत का तमगा मिल गया था. वे यह भी जानते हैं कि 1988 में कुर्दों को गैस चैंबर में झोकने समेत उसके दूसरे निकृष्टतम अत्याचारों में अमेरिका ने उसकी जमकर मदद की थी. जब लादेन ने इन असलियतों को अपने सार्वजनिक भाषणों में उठाया तो ये बातें उसे नापसंद करने वालों के साथ इलाके के सभी लोगों को सही लगी थीं. अमेरिका और इस्रायल से जुड़े तथ्य शायद ही कभी प्रकाश में आए हों. अभिजात बुद्धिजीवी आज भी उन तथ्यों से पूरी तरह बेखबर हैं. उस इलाके के लोग अमेरिकियों के इस मुगालते में नहीं हैं कि सन 2000 की गर्मी में कैंप डेविड में दिए गए प्रस्ताव विशाल हृदय और उदार थे. इसके तथ्यों से लाखों-करोड़ों लोग आज भी नावाकिफ हैं. दरअसल, 11 सितंबर के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद अमेरिकी सरकार अपने पुराने गैरइंसानी तौरतरीकों पर अडिग रहते हुए इस अवसर का भी नाजायज पूरा फायदा उठाती जा रही है. उसकी आड़ में वह अपने निजी एजेंडे लागू करती जा रही है. उसके उन एजेंडों में मिसाइल सुरक्षा समेत सैनिकीकरण, अंतरिक्ष सैनिकीकरण के लिए कोड शब्दों को मान्यता देना, सामाजिक-लोकतांत्रिक कार्यक्रमों में कटौती, कॉरपोरेट वैश्वीकरण के बुरे प्रभावों पर पर्दा डालने, पर्यावरण और स्वास्थ्य सुरक्षा से जुड़े़ महत्वपूर्ण मुद्दों की ओर से लोगों का ध्यान मोड़ना, संसाधनों को कुछ लोगों तक सीमित करना, सामाजिक वाद-विवाद और विरोधों को खत्म करने के लिए समाज को खंडित कर देना शामिल है. उसके जंगजू तत्व मौके का पूरा फायदा उठाते हुए दुश्मनों पर हिंसक पलटवार करने के लिए चौबीसो घंटे तैयार हैं. उन्हें इसकी परवाह नहीं है कि किसी भी ऐसी कार्रवाई से कितने मासूम तबाह होंगे और हिंसा के चक्र को त्वरित करने से अमेरिकी और दूसरे यूरोपीय देशों के लोगों के जीवन पर किस तरह खतरा बढ़ता चला जाएगा. दरअसल, दोनों ही तरफ बड़ी संख्या में बिन लादेन घात लगाए बैठे हैं.
11 सितंबर की घटना का आर्थिक वैश्वीकरण से कोई वास्ता नहीं है. उस घटना या अपराध को किसी भी हालत में वाजिब नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन अमेरिका को मासूम शिकार भी नहीं माना जा सकता है, जबकि उसकी और उसके साथियों की तमाम पुरानी जगजाहिर करतूतों को नजरअंदाज कर दिया जाए. अमेरिका जवाब में जो हिंसा चक्र को गति दे रहा है, जैसा कि बिन लादेन और उसके समर्थक चाहते हैं, तो खतरा बहुत भीषण हो सकता है. यहां जरूरत बिन लादेन की तरह हिंसा का जवाब हिंसा-चक्र नहीं, दुनिया के लोकतांत्रिक समाजों की नागरिक नीतियों को ज्यादा मानवीय और सम्मानजनक दिशा में मोड़ना है.
बिन लादेन नेटवर्क की विशेषता यह है कि वह पूरी तरह विकेंद्रित है. उसमें कोई मंजिल नुमा ढांचा नहीं है. वह पूरी दुनिया में इस तरह फैला हुआ है कि उसमें एक जगह से घुस जाने के बावजूद उसके पूरे तंत्र की तह तक पहुंच जाना लगभग असंभव है. खुफिया एजेंसियों को निश्चित रूप से बेहतर सुविधाओं से लैस करना होगा लेकिन इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति के खतरों को कम करने में अगर कोई गंभीर प्रयास करना है तो उनके कारणों को समझाने और सुलझाने की कोशिश करनी होगी. और ऐसा पहले किया जाता रहा है. बिन लादेन के मौजूदा नेटवर्क की जड़ें अमेरिकी प्रयासों तक जाती हैं. लादेन गिरोह उन्हीं लोगों का है, जिन्हें अमेरिका और उसके सहयोगियों ने तैयार किया था, और तब तक उनकी परवरिश करते रहे, जब तक वे अमेरिकी हितों के साथ थे. अपनी करतूतों को नजरअंदाज कर किसी एक व्यक्ति को सबसे बड़ा दुश्मन करार देना या शैतान का प्रतीक बना देना काफी आसान है बनिस्बत इसके कि बीमारी की जड़ को समझा जाए और उसका सही इलाज किया जाए. मूल्य की शर्त पर अपराध को छोटा या बड़ा नहीं कहा जा सकता, जैसे कि अमेरिका ने हिंद चीन को बर्बाद किया अथवा सोवियत रूस ने अफगानिस्तान पर अतिक्रमण किया.

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