Tuesday, March 17, 2009

दिल्ली प्रेस क्लब में नेहरू की आत्मा



दिल्ली प्रेस क्लब की एक शाम. आंगन में ठूंठ खड़ा पीपल का पेड़. अगल बगल बिछे ढेर सारे प्लास्टिक के कुर्सी मेज. राजधानी के पत्रकारों का कोलाहल. जाम-दर-जाम. हर जाम इस शाम की किसी न किसी खबर के नाम.
एक ने कहा, दिन भर मालिक इतना चूस लेता है, पेट में इतना जहर भर जाता है. आया हूं उसे ह्विस्की शोडा से बुझाने.

दूसरे ने कहा, इस क्लब की स्थापना नेहरू जी के जमाने में हुई थी. उस समय पत्रकारों ने नेहरू जी से कहा था कि संसद चलने के दौरान मिनिस्टर और नेता तो अपने ठिकानों पर लंच करने चले जाते हैं, हमें भी दोपहर के लिए कोई ऐसा स्थान दिया जाए, जहां थोड़ा विश्राम कर लिया करें. नेहरू ने तुरंत इस रेलवे भवन के बगल की जगह को पत्रकारों के लिए दे दिया था. नाम पड़ा दिल्ली प्रेस क्लब.

अब इस प्रेस क्लब में दिन रात विश्राम होता है. कई पत्रकारों की महंती यही से चलती है. सस्ती दारू, सस्ता भोजन. यहां चौथा खंभा रोजाना हजारों लीटर दारू गटक रहा है. एक पैग भीतर जाते ही शुरू हो जाती है देश-दुनिया पर तिलंगी बहस. जो चार छह पैग सूत चुके हैं, बुलेटिन पर बुलेटिन रिले करते जाते हैं. कोई सुने-न-सुने.

एक पत्रकार जी देश के हिंदी अखबारों के संपादकों पर पिल पड़ते हैं. गिनाने लगते हैं कि कौन कितना बड़ा जगलर है. कौन किस तरह अपने मालिक को पटाकर देश-विदेश के मजे ले रहा है. कौन संपादक न्यूज रूम में पत्रकारों से गाली की भाषा में बात करता है. कौन संपादक महिला पत्रकारों को ज्यादा लिफ्ट मारता है.

एक अन्य पत्रकार जी को ज्यादा चढ़ चुकी है. बांय-बांय बोल रहे हैं. उनके बगल में बैठी जनाना पत्रकार सिगरेट के धुएं से मीडिया का भविष्य लिख रही हैं. बात-बात पर पलक झपक जा रही है, होंठ माफिया मुस्कान बिखेर रहे हैं.

एक पत्रकार जी ने चार-छह पैग सूत लिया है लेकिन बिल डेढ़ सौ रुपये ज्यादा का आ गया. बगल वाले की पीठ सहलाते हुए उधार मांग रहा है. कल लौटा देगा.

एक पत्रकार जी को पी लेने के बाद कविता सुनाने का शौक है. उन्हें कोई सुन ही नहीं रहा है. वह तेजी से भाग कर बाथरूम जाते हैं, वहीं जोर-जोर से कविता पढ़ रहे हैं. कोई कहता है, इसी चक्कर में नौकरी जा चुकी है.

एक पत्रकार जी लगभग पचास-बावन साल के. बाल सफेद. मूंछ गायब. व्याख्या में व्यस्त हैं कि भारतीय मीडिया का भविष्य क्या है. प्रिंट की तो लुटिया डूबती जा रही है. इलेक्ट्रॉनिक वाले विदेशी कर्ज पर गुलछर्रे उड़ा रहे हैं.

...और धीरे-धीरे रात के एक बज चुके. सारे लोग जा चुके. ठूंठ पीपल के नीचे पिल्ला पूंछ खुजला रहा है. जमीन पर वहीं जनाना पत्रकार बगल वाले पर बरस रही हैं. खरी-खोटी बरसा रही हैं.....चारो ओर सन्नाटा. बाहर वाहनों की पें-पें भी थमने लगी है. नेहरू की आत्मा हुलस रही होगी.

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